२७.
ज्यों भरि कै जल तीर धरी निरखे त्यों अधीर ह्वै न्हात कन्हाई।
जानैं नहीं तेहि ताकन में ‘रतनाकर’ कीन्ही महा टुनहाई॥
छाई कछू हरू आई शरीर में नीर में आई कछू गरुआई।
नागरी की नित की जो सधी साई गागरी आज उठ न उठाई॥
२४.
मंजुल मोरपखा छहरै छवि सों जब ग्रीव कछु मटकावत ।
नूपुर की झनकारन पै झुकि ग्वालिन गोधन गीत गवांवत ॥
आननचन्द सु मन्द हंसी ‘रतनाकर’ माल हिये लहरावत ।
देखि सखी वह मैन लजावत सांवरो बेनु बजावत आवत ॥
Krishna in Vrindavan :-)
२३.
सांवरी राधिका मान कियो परि पांयन गोरे गोविन्द मनावत ।
नैन निचौहे रहं उनके नहीं बैन बिनै के नये कहि आवत ॥
हारी सखी सिख दै ‘रतनाकर’ हेरि मुखाम्बुज फेरि हंसावत ।
ठान न आवत मान इन्हैं उनको नहिं मान मनाबन आवत ॥
Poet Ratnakar says in this sawaiya:
When Radha was annoyed with Krishna, Krishna bowed at her feet requesting her for truce. He didn’t really know how to please her. Neither did Radha really know how to show anger, observes the poet.