४२.
मोरपखा गल गुंज की माल किये बर बेष बड़ी छबि छाई।
पीत पटी दुपटी कटि में लपटी लकुटी ‘हटी’ मो मन भाई॥
छूटीं लटैं डुलैं कुण्डल कान, बजै मुरली धुनि मन्द सुहाई।
कोटिन काम ग़ुलाम भये जब कान्ह ह्वै भानु लली बन आई॥
४०.
संकर से मुनि जाहि रटैं चतुरानन चारों ही आनन गावैं।
जो हिय नेक ही आवत ही मति मूढ़ महा ‘रसखान’ कहावैं॥
जापर देवी ओ देब निह्हरत बारत प्राण न वेर लगावैं।
ताहि अहीर की छोहर्या छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं॥
३८.
ऐसी करा नव लाल रंगीले जू चित्त न और कहूं ललचाई।
जो सुख दुख रहे लगि देहसों ते मिट जायं आलोक बड़ाई॥
मागति साधु वृन्दाबन बास सदा गुण गानन मांहि विहाई।
कंज पगों में तिहारे बसौं नित देहु यहै ‘ध्रुय’ को ध्रुवताई॥
३९.
योगिया ध्यान धरैं जिनको, तपसी तन गारि के खाक रमावै।
चारों ही वेद ना पावत भेद, बड़े तिर्वेदी नहीं गति पावैं॥
स्वर्ग औ मृत्यु पतालहू मे जाको नाम लिये ते सवै सिर नावैं।
चरनदास कहै, तेहि गोपसुता, कर माखन दै दै के नाच नचावैं॥
Sawaiya poetry from vrindavan is in Brajbhasha and is used beautifully in raslilas.

३६.
सूकर ह्वै कब रास रच्यो अरु बावन ह्वै कब गोपी नचाईं।
मीन ह्वै कोन के चीर हरे कछुआ बनि के कब बीन बजाई॥
ह्वै नरसिंह कहो हरि जू तुम कोन की छातन रेख लगाई।
राधिका जू प्रगटी जब ते तब ते तुम केलि कलानिधि पाई॥

३५.
मन में बसी बस चाह यही प्रिय नाम तुम्हारा उचारा करूं।
बिठला के तुम्हें मन मंदिर में मन मोहन रूप निहारा करूं॥
भर के दृग पात्र में प्रेम का जल पद पंकज नाथ पखारा करूं।
बन प्रेम पुजारी तुम्हारा प्रभो नित आरती भव्य उतारा करूं॥
Sawaiya verses are part of the rich literary heritage of Braj (Mathura-Vrindavan). They are dramatised in raslila performances.
३४.
द्वार के द्वारिया पौरि के पौरिया पाहरुवा घर के घनश्याम हैं।
दास के दास सखीन के सेवक पार परोसिन के धन धाम हैं॥
‘श्रीधर’ कान्ह भये बस भामिनि मान भरी नहीं बोलत बाम है।
एक कहै सखि वे तो लली वृषभान लली की गली के गुलाम हैं॥